अंधेरा...
बचपन में सुना था मुहावरा
’दियेतले अंधेरा’
’दियेतले अंधेरा’
तब सही मायने पता न चले...
अब जब सोच रोशन हुई,
तब पुछा अपने आप से,
क्या है वजूद अंधेरे का?
उस वजूद का इकरार इस दिवाली हुआ...
पता चला क्युँ अंधेरा युँ
दबे पाँव, दियेतले सहमा-सहमा रेहेता है,
क्युँ कसूरवार बच्चे की तरह
यूँ डरा-डरा फ़िरता रेहेता है!
हमने तो यूँ रोशनी के लिये
दरवाजे- खिडकीया सब खोल दी,
अंधेरे के लिये उन्हीके बगल में दिवारे बना दी,
अब जब दरवाजा खोलतेही,
सामने रोशनी पातेही हम उसे गले मिलने जाते है,
अंधेरा दबे पाँव, चूप चाप से
अपनी परछाई बनके अपने पैरो से लिपट जाता है...
हम तो रोशन होते है, अंधेरा पैरोतले कुचल जाता है!
-प्रथमेश किशोर पाठक