अंधेरा...
बचपन में सुना था मुहावरा
’दियेतले अंधेरा’
’दियेतले अंधेरा’
तब सही मायने पता न चले...
अब जब सोच रोशन हुई,
तब पुछा अपने आप से,
क्या है वजूद अंधेरे का?
उस वजूद का इकरार इस दिवाली हुआ...
पता चला क्युँ अंधेरा युँ
दबे पाँव, दियेतले सहमा-सहमा रेहेता है,
क्युँ कसूरवार बच्चे की तरह
यूँ डरा-डरा फ़िरता रेहेता है!
हमने तो यूँ रोशनी के लिये
दरवाजे- खिडकीया सब खोल दी,
अंधेरे के लिये उन्हीके बगल में दिवारे बना दी,
अब जब दरवाजा खोलतेही,
सामने रोशनी पातेही हम उसे गले मिलने जाते है,
अंधेरा दबे पाँव, चूप चाप से
अपनी परछाई बनके अपने पैरो से लिपट जाता है...
हम तो रोशन होते है, अंधेरा पैरोतले कुचल जाता है!
-प्रथमेश किशोर पाठक
:) mast....
ReplyDeletewahh ... chan ch :)
ReplyDeleteThank you vinayak and Manali :D
ReplyDeleteSahi especially दबे पाँव, दियेतले सहमा-सहमा रेहेता है,
ReplyDeleteक्युँ कसूरवार बच्चे की तरह
यूँ डरा-डरा फ़िरता रेहेता है!
Thnk u Salil- Prathamesh
ReplyDeletesuperb...
ReplyDeleteहमने तो यूँ रोशनी के लिये
दरवाजे- खिडकीया सब खोल दी,
अंधेरे के लिये उन्हीके बगल में दिवारे बना दी,
kharach... khup surekh varnan kele ahe maanavi bhavanaanche andhaaraala rupak gheun....
thank you @Alone Dreamer
ReplyDeleteहम तो रोशन होते है, अंधेरा पैरोतले कुचल जाता है!
ReplyDeletebaap kavita!!!
i can find some superluminous Stars and Blackholes in ur poem!! jhakaaasss!!
Rishi... thank you very much... i m just a star, galaxy is there in Nashik which i belong to!
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