Wednesday, July 11, 2012

बारीश

(A beautiful poem by Gulzar sahab depicting two different views- an innocent view of his daughter who is just enjoying rain and a worried view of a father who is not able to see beyond problems a rain can cause.)

देर तक बैठे हुए दोनो ने बारीश देखी

वो दिखाती थी मुझे बिजली की तारो पे लटकती हुई बुँदे
जो ताक्कुब में थी एक दुसरे के,
और एक दुसरे को छुतेही तारोसे लिपट जाती थी...
 मुझको ये फ़िक्र के बिजली का करंट
छू गया किसी नँगी तारसे तो
आग के लग जानेका भय होगा...

 उसने कागज़ की कई कश्तिया
पानी में उतारी
और ये कह के बहा दी के 
’समंदर में मिलेंगे’...

 मु्झको ये फ़िक्र की
इस बार भी सैलाब का पानी
कुदके उतरेगा कोहसार से जब
तोड के ले आयेगा ये कच्चे किनारे

ओक में भरके वो बरसात का पानी
अधभरी झीलो को तरसाती रही
वो बहोत छोटी थी, कमसिन थी,
 वो मासूम बहोत थी...

 आविशारोके तरन्नूम पे कदम रखती थी
और गुँजती थी...
और में उम्र के इफ़्कार में गुम,
 तजुर्बे हमराह लिये...
साथ ही साथ में
बहता हुआ...चलता हुआ... बह्ता गया

-
 
गुलज़ार

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