बारिश का मौसम गए हुए एक अरसा गुजर चूका था
पिली धुप चेहेक रही थी आसमान साफ़ हो चूका था
जमींन की बढ़ी हुई झुरिया बारिश के पानी से मिट गई थी
उसका चेहरा खिल-खिला रहा था क्युके
उसकी मिटटी में पड़ी दूरियों की दरारे मिट गई थी
पेड़ो का भी कुछ एसा ही हल था
बरसो पुराने पेड़ आजकल नहायेसे लग रहे थे
उनकी पत्तो की सरसराहट मे कुछ था शायद,ध्यान से सुना तो पता लगा
के वो आज भी बूंदों की गझल गुनगुना रहे थे
सब कुछ ठीक ही था मगर न जाने
कहासे एक बादल वहापे आया
यहाँ-वहा देख कर क्यों न जाने फुट-फुट के रोया
उसकी आसुओ मे फिरसे भीग गया सब कुछ
पत्ते थरथराने लगे,जमीं का खुबसूरत चेहरा कीचड़ मे तब्दील हो गया
मैंने घुस्से से उसे पूछा
क्यों किया तुने एसा? क्या पाया?
तब एक थरथराते हुए पेड़ ने मुझे कहा
मत बोल उसे कुछ वो शायद डर गया है
भूल गया?तेरा भी तो साथ छोड़ा था किसी अपनेने बिच मे
ये भी शायद तेरी तरहा बिछड़ गया है...
अभिजीत विठ्ठल शिंदे.
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