Sunday, November 4, 2012

गुलज़ार की तीन कविताएं

) मैं सिगारेट तो नही पिता
पर हर आनेवेलेसे पुँछ लेता हूँ
माचिस हैं?’
बहोत कुछ है जिसे में
जला देना चाहता हूँ...
मगर हिम्मत नही होती

) जलते शहर में बैठा शायर
इससे ज्यादा करे भी क्या?
अल्फ़ाज़ से जखम नही भरते
नज़्मो से खराशे नही भरती
 
) नज़्म उलझी हुई है सीने में
मिसरे अटके हुए हैं होठों पर
उड़ते-फिरते हैं तितलियों की तरह
लफ़्ज़ काग़ज़ पे बैठते ही नहीं
कब से बैठा हुआ हूँ मैं जानम
सादे काग़ज़ पे लिखके नाम तेरा

बस तेरा नाम ही मुकम्मल है
इससे बेहतर भी नज़्म क्या होगी

 

- गुलज़ार


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